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बाइस्कोप! किस-किस को याद है वह गुजरा जमाना जब गांव की गलियों में डुगडुगी बजाता हुआ बाइस्कोपवाला आता था। तब बच्चे चवन्नी के लिए जिद करते थे। यह दौर था 80-85 का। यह व दौर था जब मनोरंजन के साथ लोक नाच ‘नौटंकी’ और मदारी वाले हुआ करते थे।
नौटंकी तो गांव-घर के बड़े बुजुर्ग देखने चले जाते थे, लेकिन बच्चों को नाच यानी नौटंकी देखने की मनाही होती थी। उस दौर में लोग बच्चों के लिए नाटक- नौटंकी देखना ठीक नहीं मानते थे। यह दौर कठपुतलियों का भी था। जो केंद्र या प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के आदेश पर गाहे-बगाहे गांवों में आकर सेहत विभाग की टीम जनसंख्या नियंत्रण सहित अन्य सेहत सुविधाओं की जानकारी इन्हीं नन्हीं कठपुतलियों के माध्यम से देते थे। इन कठपुतलियों के नाच देख कर बच्चे बेहद खुश होते थे और तालियां बजाते थे। लेकिन, यहां हम बात कर रहे हैं बाइस्कोप की।
दिल्ली का कुतुबमीनार देखो…
सन् 1972 में एक फिल्म आई थी ‘दुश्मन’। जिसने भी यह फिल्म देखी होगी उसे याद होगा ‘जब मुमताज बाइस्कोप लेकर गांव में पहुंचती हैं तो इसे देखने के लिए बच्चों की भीड़ लग जाती है। उस समय थिएटर और रंगमंच केवल शहरों में हुआ करते थे। लेकिन बाइस्कोप गांव के बच्चों के लिए किसी सिनेमा हॉल में लगी फिल्म से कम नहीं था। इस छोटे से बक्से में कलकत्ता के हावड़ा पुल से लेकर दिल्ली की कुतुब मीनार और बंबई के बाजार भी थे। लंगड़ी धोबिनिया थी तो आगरे का ताजमहल भी था। यानी चवन्नी में घर बैठे सारा संसार देखने को मिलता था।
बाइस्कोप वाले को देखते ही मचल उठता था मन
याद है, कैसे स्टैंड पर रंग-बिरंगे लकड़ी बक्से के चारोंओर छोटे-छोटे सीसा लगे छेद में आंखें गड़ाए रहते थें। उपर से बाइस्कोप वाला गाना गा गा कर अलग-अलग तस्वीरें दिखाता था, जो रोल में रहती थीं और एक हैंडल से घुमाने पर बारी बारी से दिखती थीं। बक्से के ऊपर माक्रोफोन वाला गोल-गोल रिकॉडर घूमता और साथ में गाना भी बजता था। तब बाइस्कोप वाले को देखते ही मन मचल उठता था। कभी मां का आंचल पकड़ कर चवन्नी देने की बात करते थे तो कभी पिता जी से जिद। जब कहीं नहीं बात बनती तो दादा जी की अंगुली पकड़ कर उन्हें सीधे बाइस्कोप वाले के पास ले जाकर खड़े कर देते थे। और अपनी बारी का इंतजार करते कि कब वो झरोखा खाली हो और हम घर बैठे ‘सारा संसार’ देंखें।
खेल खत्म होता है बच्चों बजाओ ताली
सत्तर और अस्सी के दशक तक गांव -गांव ‘बाइस्कोप’ वाले खूब दिखते थे। यह वह दौर था जब टेलीविजन हमारे यहां नहीं पहुंचा था। मनोरंजन का यह सुलभ साधन था। यही नहीं बाइस्कोप वालों के परिवार का पेट इसकी कमाई पलता था। कोई उन्हें दस पैसे, २० पैसे या चवन्नी देता था। जिसके पास यह भी नहीं होता था वह गेहूं या चावल दे कर बाइस्कोप देखता था। समय बदला टवी पहले शहरों में और फिर धीरे-धीरे गांवों में अपनी पैठ बना ली। इसके बाद वीसीडी और डीवीडी आई। इस बीच समय इतना तेजी से बदला कि घर बैठे चवन्नी में संसार दिखाने वाला ‘बाइस्कोप’ शहर से तो दूर था ही गांवों से भी दूर हो गया। आज ‘ बाइस्कोप ‘ तो क्या बाइस्कोप वाले भी नहीं दिखते । मोबाइल से चिपके रहने वाले बच्चों से बाइस्कोप के बारे में पूछिए। यकीन मानिए ये ‘बाइस्कोप’ उनके लिए एक नया शब्द होगा। या आज से 12 साल पहले जन्मे बच्चे दूरदर्शन पर देर रात सोमवार से बुधवार तक प्रसारति होने वाले कार्यक्रम ‘बाइस्कोप’ ही बताएं। कहेंगे क्या पापा! आपने भी वही बात कर दी। वही बाइस्कोप न जिसमें दूरदर्शन वाले एक फिल्म को थोड़ा-थोड़ा करके तीन दिन दिखाते थे। अब बाइस्कोप दुर्ल्भ वस्तु बन कर रह गया है।
पहली बार कब लोगों ने देखा बाइस्कोप
भारत में पहली बार बाइस्कोप कब और कहां आया। यह तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। इतना जरूर कहा जाता है कि ‘बाइस्कोप’ संभवत: 1096 ईसवी में पहली बार कलकत्ता (आज के कोलकाता) में लोगों ने देखा था। उस जमाने के चल चित्र यानी बाइस्कोप को कलकत्ता के श्री हीरालाल सेन इसे लेकर आए और उन्होंने लोगों को दिखाई। उस समय बड़ों के साथ-साथ विशेष कर बच्चों ने भी बहुत पसंद किया। जल्द ही ‘ बाइस्कोप ‘ पूरे बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में छा गया। कहा जाता है कि हीरा लाल सेन ने ” रॉयल बाइस्कोप कम्पनी ” नाम की एक संस्था भी बना ली। इस कंपनी ने भारत के अन्य राज्यों में इसका प्रचार– प्रसार किया । बाइस्कोप का भारत के गांवों में 1980-85तक एकछत्र राज्य था।
फिल्मी गीतों में ‘बाइस्कोप’
बाबा-दादा के जमाने में बाइस्कोप का क्रेज इतना था कि यह गांव की गलियों से उठ कर न जाने कब बंबइया सिनेमा में पहुंच गया लोगों को पता नहीं चला कि चार आने में घर बैठे सांसार दिखाने वाला उनका बाइस्कोप सिनेमा में पहुंच गया। इसकी लोक प्रियता का पता लोगों को तब जला जब राजेश खन्ना और मुमताज अभिनित फिल्म ‘दुश्मन’ को लोगों ने देखा या रेडियो पर उसके गाने सुने। इस फिल्म में एक गाना था –
” देखो – देखो – देखो ,
बाइस्कोप देखो ,
दिल्ली का क़ुतुब मीनार देखो ,
बम्बई शहर की बहार देखो ,
ये आगरे का है ताजमहल ,
घर बैठे सारा संसार देखो ,
पैसा फेंको , तमाशा देखो ।”
उस समय यह गाना उस फिल्म का सबसे सुपर हिट गाना था। जिसे देश भर में रेडियो पर गली-गली और घर-घर में सुना जाने लगा। यह गाना आज भी कहीं बजता है तो वो पुराने दिन याद जा ते हैं जब बच्चे गांवों साइकिल के पुराने टायर से खेल रहे होते थे।