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मृगदाव में अशोक से मिले थे बुद्ध, Buddha met Ashoka in Mrigadava

मृगदाव में अशोक से मिले थे बुद्ध, Buddha met Ashoka in Mrigadava

सिद्धार्थ : Buddha met Ashoka in Mrigadava, अशोक की पीली धोती पर पड़े रक्त के छींटे। लंबा शरीर, बलिस्ठ भुजाएं और चौड़े कंधे से धनुष बार-बार सरकता जा रहा था । कमर में बंधी तलवार संभल नहीं पा रही थी। जैसे किसी बोझ से शरीर झुका जा रहा था। चमचमाते कंचन के आभूषणों पर खून के छींटे थे । अशोक घुटनों के बल बैठ गए, एकदम पस्त थे, थके हुए। मगध नरेश अशोक कलिंग युद्ध जीत चुके थे, उनके अहंकार का घड़ा लबालब भर गया। वे उठना चाहते थे, लेकिन खून के कीचड़ से सने पांव साथ नहीं दे रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पांव अभी भी खूनी कीचड़ में धर रहे थे। रण भूमि में पड़े धड़ से अलग हुए सिर अशोक से बार- बार सवाल कर रहे थे।

चंड अशोक! इस जीत को कहां रखोगे। खून के दलदल और कीचड़ से होते हुए अशोक युद्ध भूमि से बाहर तो निकल आए, लेकिन उनका मन अब भी उन सवालों के उत्तर तलाश रहा था, जो युद्ध भूमि में पड़े धड़ से अलग हुए सिर सवाल कर रहे थे। कलिंग विजय के बाद भी खून से सनी धोती और तलवार से टपकती रक्त की बूंदें ‘चंड अशोक’ को बार-बार विचलित कर रहीं थीं। कुछ दिन बाद अशोक ने देखा दो पुरुष मुड़े सर, पांव तक लंबा चोंगा पहने भिक्षाटन कर रहे हैं। उन भिक्षुओं ने कहा, हे सम्राट! तुम्हारे मन की तपिश को शांत करने का मार्ग है- ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गछामि, संघम् शरणम् गछामि’ अथार्त बुद्ध की शरण में जाओ, धम्म की शरण में जाओ। लेकिन बुद्ध की शरण में कैसे जाया जा सकता है। ऐसा करना को कठिन है, अशोक शरण में कैसे जाएंगे वे तो महानायक हैं। वे शरणागत कैसे हुए होंगे…। वे तो बस उन भिक्षुओं के पीछे-पीछे चले होंगे।

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मंत्रमुग्ध सा उन भिक्षुओं के पीछे-पीछे चलते अशोक देखते हैं एक बोधि वृक्ष के नीचे एक ज्योति पुंज में लिपटी घुंघराले बालों वाली कंचन काया पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा है। उसकी आंखें अधखुली हैं। तभी एक आवाज गूंजती है- अशोक ! एकबारगी अशोक थम सा गया। मन में उठ रही सारी तपन शांत हो गई। अब अशोक बुद्ध की शरण में आ चुके थे। धम्म की शरण में आ चुके थे। यानी चंड अशोक, कलिंग विजेता सम्राट अशोक बुद्ध का शर्णात हो चुका था। बुद्ध ने कितने सुंदर धर्मचक्र का रेखांकन किया। चक्र घूमता है लेकिन चक्र का मूल स्थिर है जो ‘ निर्वाण’ कहलाता है।

इतिहास के पन्ने कहते हैं, अशोक और बुद्ध का काल समान नहीं था। बुद्ध तो बिंबसार के काल के हैं। भले ही बुद्ध और अशोक में पीढि़यों का अंतर रहा हो, लेकिन बुद्ध को आत्मसात किया अशोक ने। तथागत बुद्ध के निवार्ण के उनकी अस्थियों पर अधिकार को लेकर 16 महाजनपदों के राजाओं में युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। आनंद के सूझबूझ से यह टकराव टला और 18 स्थानों पर बुद्ध के अस्थि कलश पर स्तूप बने, लेकिन 18 स्तूपों से 84 हजार स्तूपों का भारत सहित ईरान में निर्मित करवा कर उनमें तथागत की अस्थियों को विराजमान करने का श्रेय बुद्ध को जाता है।

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अशोक अब चंड अशोक नहीं रहा। अब वह अहिंसा का पुजारी हो चुका था। वह मगध से चल कर मृगदाव (सारनाथ) आता है। यह वही सारनाथ या मृगदाव है, जहां ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ने अपना पहला धर्मोंपदेश उन पांच साथियों को दिया जो उनके साथ तपस्या करते थे। अशोक ने न केवल यहां धर्मराजिका स्पूत का निर्माण करवाया, बल्कि कई बौद्ध विहारों का भी निमार्ण करवाया। सारनाथ वही स्थल जहां मौर्य सम्राट शोक ने सिंह शिर्ष स्तंभ स्थापित कर बौद्ध धर्म को चीर स्थाई रूप दिया।

सारनाथ आज भी उतना ही प्रसांगिक है जिनता की अशोक के समय या उसके बाद के राजवंशों के समय में हुआ करता था। वेशक काल के अंतराल में सारनाथ में बने बौध विहार, स्तूप और मूर्तियों पर एक तरह से वक्त का परदा पड़ गया था, लेकिन धूल धूसरित इस पर्दे के हटते ही सारनाथ का वैभव देवदिप्यमान है। यहां न केवल धर्मराजिका स्तूप के अवशेष, दिखते हैं वरन धमेक स्तूप, बौद्ध विहारों के खंडर और चार सिंहों वाले अशोक स्तंभ बुद्ध की थाती को समेटे आज भी बुद्धम शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि का संदेश दे रहे हैं।








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