Home उत्तर प्रदेश हाशिया पर सूप बनाने वाला ढेहा समाज, मुफ़लिसी में कटती है जिंदगी

हाशिया पर सूप बनाने वाला ढेहा समाज, मुफ़लिसी में कटती है जिंदगी

by Jharokha
0 comments
A poor society that makes soup on the margins, spends its life in poverty.

अमृतसरहमारा सामाजिक तानाबाना कुछ ऐसा है कि समाज के हासिए पर रहने वाला एक समाज किस खास मौके पर खास बनजाता है। या यूं कहें कि जिस तरह से हाथ की पांचों अंगुलियां एक समान नहीं होती, लेकिन साथ मिलती हैं तो यह मुट्ठी मन जाती हैं, तभी तो कहते हैं बंद मुट्ठी काम की। कुछ ऐसा ही है हमारे सामाज का ताना-बाना जहां एक दूसरे के बिना नहीं चलता और सभी के लिए सबका काम बंटा होता है। जी हां, हम बात कर रहे ढेड या ढेहा बिरादरी की। इस बिरादरी के लोगों का पुश्तैनी काम होता है सूप बनाना जिसे छज्ज भी कहा जाता है। ढेहरा समाज के लोग पूरे भारतवर्ष में निवास करते हैं। इन्हें अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

सूप जो हर घर की जरूरत है। सूप का मुख्य कार्य अनाज को साफ करना। खास तौर से इसकी मांग गेहूं और धान के सीजन में बढ़ जाती है,खास तौर से ग्रामीण इलाकों में। तिनके-तिनके को जोड़ कर ढेहा समाज के लोग सूप तो तैयार कर लेते हैं,लेकिन इनकी जिंदगी तिनके-तिनके बिखरी होती है। कारण कुछ और नहीं,गरीबी, जागरूकता और मूलभूत सरकारी सुविधाओं का अभाव। आज हम इन्हीं ढेहा समाज के लोगों और इनके कामों के बारे में बताने जा रहे हैं।

सिख धर्म के काबा कहे जाने वाले गुरु नगरी अमृसर के गेट हकीमा वाला में एक कालोनी है लेबर कालोनी। जैसा की नाम से ही आभास होता है कि इस कालोनी में किस तरह के लोग निवास करते होंगे। इसी कालोनी में रहते हैं ठेहा समाज के लोग। इनके कुल 1500 के करीब घर होगें। इस समाज के लोगों का मुख्य पेशा सूप बनाना और शहर और गांवों में जाकर बेचना है, लेकिन इस काम में मेहनत ज्यादा और आमदनी कम है।

हमारी मुलाकात होती है सूप बना रहीं 70 वर्षीय शीला जगन्नाथ से । उनके इस काम में उनका हाथ उनकी दो बेटियां और बहु बटा रही हैं। बातचीत थोड़ा आगे बढ़ती है। शीला कहती हैं आंख से थोड़ा कम दिखाई देता है, हाथ भी ढंग से काम नहीं करता पर क्या करें, काम तो करना ही पड़ेगा। तिनका-तिनका जोड़ कर छज्जा रही हूं।
शीला कहती हैं यह हमारा पुश्तैनी काम है। पीढ़ी दर पीढ़ी करते आए हैं। शीला की ही तरह सड़क किनारे चंदा, राधा, ममता और भोली भी सूप बनाने के काम में लगी, जबकि पास में ही उनके बच्चे खेल रहे हैं। बस्ती के कई और परिवार इस काम में लगे हैं।

लागत ज्यादा और आमदनी कम

शीला कहती हैं, सूप बनाने में लागत और मेहनत ज्यादा है, जबकि आमदनी बहुत कम। सूप की मांग शहरों में तो कम पर गांवों में कुछ ज्यादा है। वैसे सूप की जरूरत हर घर में हर समय रहती है,लेकिन धान और गेहूं के सीजन में गांवों में कुछ बढ़ जाती है। सूप बनाने में लगने वाले सरकंडों को सीमावर्ती गांवों और राजस्थान से मंगाना पड़ता है। गीनती के हिसाब से सरकंडों का मूल्य तय होता है।

पुश्तैनी काम छोड़ रही है नई पीढ़ी

75 वर्षीय प्रेम कहते हैं, नई पीढ़ी इस पुश्तैनी काम को छोड़ रही है। मेहनत और लागत के मुकाबले मुनफा न होने के कारण बच्चे अब कल -कारखानों में नौकरी करने लगे हैं। सूप बेच कर बमुश्किल घर का गुजारा चलता है। सरकारी योजनाओं का भी पूरा लाभ नहीं मिलता।

भिंडी सैदा,चोगांवा से मंगाते हैं सरकंडे

प्रेम कहते हैं, सरकंडे भिडी सैदा, चोगांवा, ब्यास, हरीके आदि जगहों से मंगवाते हैं। सरकंडों का एक गट्ठर 400 से 600 रुपये का पड़ता है। एक गट्ठर में 100 सरकंडे होते हैं। यानी एक सरकंडा 4 से 6 रुपये का पड़ता है। इसके अलावा बांस और अन्य खर्च भी हैं। इन खर्चों के बाद बाद अब बारी आती छज्ज तैयार करने की।

एक दिन में बना लेते हैं 6 से 8 सूप

ठेहा समाज के ही 50 वर्षीय गोपीचंद कहते हैं कि सारे कच्चा माल जैसे सरकंडों को काटने और बांस की पतली-पतली कमाचियों को तैयार करने के बाद एक सूप को बनाने में एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है। अगर कोई इस काम में दक्ष नहीं है तो उसे एक सूप तैयार करने में दो से ढाई घंटे का समय लग जता है। यानी एक व्यक्ति एक दिन में छह से आठ सूप तैयार कर लेता है। लेकिन मेहनत के हिसाब से सूप के दाम नहीं मिलते।

शादी में मिलते हैं नेग

गोपीचंद कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज का तानाबाना ही ऐसा है कि एक समय ऐसा भी आता है जब समाज के हाशिए रहने वाले व्यक्ति की भी अहमियत बढ़ जाती है। वे कहते हैं, शहर हो या गांव। शादी- ब्याह के समय सूप बेचने वाले ढेहा को सूप के दाम के साथ-साथ नेग भी मिलता है। गोपीचंद के मुताबिक शादी से एक दो दिन पहले पंजाब में जागो निकालने की परंपरा है। जागो में छज्ज यानी सूप का होना जरूरी है। शहरों में तो लोग दुकानों या ढेहा के पास से सूप खरीते हैं, लेकिन गांवों में लोग सूप लेने के लिए ढेहा को घर बुलाते हैं और पूरे रीति रिवाज के साथ उसका सम्मान करते हैं और सूप का मूल्य चुकाने के साथ-साथ उसे नेग भी देते हैं।

80 से 100 रुपये का बिकता है एक सूप

अपनी मां के साथ सूप बना रही चंदा कहती हैं। एक सूप बनाने में कम से कम दो घंटे का समय लगता है, लेकिन यह सूप 80 से 100 रुपये का बिकता है। यानि दिन भर में दो से तीन सूप ही बिक पाते हैं। ऐसे में देखा जाए तो आमदनी न्यूनतम मजदूरी से भी कम होती है। इसी लिए उनके बच्चे ये काम छोड़ते जा रहे हैं।

सरकारी योजनाओं और सुविधाओं से भी वंचित हैं कई परिवार

अभावों में भी रह कर दस्ताकरी के हुनर को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा रहे ढेहा समाज के लोग कई मूलभूत सुविधाओं और केंद्र व राज्य सरकारों की कई योजनाओं से वंचित हैं। लेबर कालोनी में रहने वाले ढेहा समाज के कई ऐसे परिवार हैं जिनका न तो आज तक मुफ्त आटा-दाल योजना का लाभ लेने के लिए नीला कार्ड बना है और ना ही रेहड़ी फड़ी वालों को दिए जा रहे 10,000 रुपये के लोन का पता है। और ना ही प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ। ऐसे में कई परिवार मुफ्लीसी की जिंदगी जी रहे हैं।

नई पीढ़ी सूप बनाना नहीं चाहती

राधा और ममता कहती हैं, चलो… हमारा गुजर बसर तो जैसे तैसे हो जा रहा है, लेकिन नई पीढ़ी के बच्चे इस पुश्तैनी काम को नहीं करना चाहते। वे कहते हैं उनके भी कुछ सपने हैं, जो दिन भर में 100-200 रुपये के सूप बेच कर पूरे नहीं हो सकते। अगर ढेहा समाज के लोग गांवों मे रहते हैं तो उनके बच्चे काम की तलाश में शहरों की तरफ रुख करते हैं और कल कारखानों में छोटीमोटी नौकरी कर घर चलाते हैं।

Jharokha

द झरोखा न्यूज़ आपके समाचार, मनोरंजन, संगीत फैशन वेबसाइट है। हम आपको मनोरंजन उद्योग से सीधे ताजा ब्रेकिंग न्यूज और वीडियो प्रदान करते हैं।



You may also like

द झरोखा न्यूज़ आपके समाचार, मनोरंजन, संगीत फैशन वेबसाइट है। हम आपको मनोरंजन उद्योग से सीधे ताजा ब्रेकिंग न्यूज और वीडियो प्रदान करते हैं।

Edtior's Picks

Latest Articles