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कहते हैं हर दरकती दिवारों का अपना इतिहास और वजूद होता है जो मौजूदा पीढ़ी को वर्तमान से उसके अतीत की ओर ले जाता है। ऐसी ही एक हवेली और खंडहर है अमृतसर के वार्ड नं. 85 के काले वाला गांव में। जिसे सरदारों की हवेली के नाम से जाना जाता है। वक्त के बेरहम थपेड़ों को सहजे सिख इतिहास के सुनहरे दौर को अपने बूढ़े कंधों पर उठाए जर्ज हो चुकी दीवारें पिछले बरसात में धराशाईई हो गईं थीं तो कुछ आज भी सीना ताने खड़ी हैं । लेकिन इनका वर्तमान इस बात की तस्दीक करता है कि बीता हुआ कल कितना आकर्षक और सुंदर रहा होगा।
काले वाले सरदारों की इस हवेली इतिहास पर जम चुकी वक्त की धूल को हटाने की कोशिश की तो सफा दर सफा (पेज) ऐसा खुलता गया कि जिसे जान कर सिख इतिहास में रुचि रखने वाला रह कोई कोई इसके गहराई में उतराना चाहेगा। क्योंकि मामूली समझे जाने वाले इस हवेली के खंडहर का इतिहास सीधे लाहौर दरबार में महाराजा रणजीत सिंह की ताजपोशी से सिख सामराज्य के पतन से जुड़ा है। यही नहीं इस हवेली का संबंध में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के भरोसेमंद रहे जरनैल सरदार फतेह सिंह सहित तीन-तीन जरनैलों से जुड़ा है।
1800 से 1805 के बीच बनी हवेली
महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति रहे जरनैल फतेह सिंह के सातवीं पीढ़ी के 78 वर्षीय जसपाल सिंह ने कहा कि जिसे आप खंडहर कर रहे हैं वह मात्र हवेली का खंडहर भर ही नहीं है। इससे सिख सामराज्य के करीब 225 साल का इतिहास जुड़ा है। वे कहते हैं कि इस हवेली का निर्माण उनके पूर्वज और महाराजा रणजीत सिंह के सेना में जरनैल रहे सरदार फतेह सिंह ने सन 1800-1805 के बीच करवाया था।
कौन थे जरनैल सरदार फतेह सिंह
सरदार फतेह सिंह 1798-1807 तक महाराजा रणजीत सिंह सेना में कमांडर और जागिरदार रहे। महाराजा रणजित सिंह के दरबार में रहे सूरी सोहन लाल की लिखी किताब ‘ `उमदत-उत-तवारीख’ में भी स. फतेह सिंह कालियां वाला का उल्लेख मिलता है। `उमदत-उत-तवारीख’ के अनुसार 1799 में महाराजाण रणजीत सिंह के लाहौर फतेह के दौरान भी कमांडर सरदार फतेह सिंह साथ रहे। इसके अलावा उन्होंने कसूर जंग 1801 और झंग की जंग 1806 में भी भाग लिया। इसके बाद 1807 में महाराजा रणजीत सिंह ने नारायणगढ़ किले की घेराबंदी की, जो मौजूदा समय में अंबाला जिले में है और उस समय यहां का शासक सरदार किशन सिंह थे। सेना की कमान संभाल रहे फतेह सिंह ने किले पर हमला किया, जिसमें वह गंभीर रूप से जख्मी हुए और 25 अक्टूबर 1807 को वीरगति को प्राप्त हो गए। चूंकी फतेह सिंह को कोई पुत्र नहीं था इसलिए उनकी पत्नी माई सेवन ने स. दल सिंह को गोद लिया, जो आगे चलकर महाराजा रणजीत सिंह की सेना में जरनैल हुए।
तीन जरनैल रहे इस हवेली में
स. जसपाल सिंह बताते हैं कि बस इतना ही भर नहीं, काले गांव के सरदारों की इस हवेली में तीन जरनैल व बटाला और अमृतसर के मजिस्ट्रेट भी रहे हैं। जसपाल सिंह के मुताबिक सन 1823 में जरनैल दल सिंह के निधन के बाद उनके बेटे अतर सिंह महाराजा रणजीत सिंह के सेना की कमान संभाली। जसपाल सिंह के मुताबिक 26 अक्टूबर 1831 को रोपड़ में महाराजा रणजीत सिंह और लार्ड बिलियम बेंटिक के बीच हुए संधि में संधि पत्र पर महाराजा रणजीत सिंह, शाम सिंह अटारीवाला और अन्य जरनैलों के साथ अतर सिंह के भी हस्ताक्षर हैं। अतर सिंह को अंग्रेजों ने कौंसल आफ रिजेंसी में सदस्य बनाया। अतर सिंह लाहौर के मजिस्ट्रेट भी रहे। इनका निधन 1851 में हो गया।
बटाला और अमृतसर के मजिस्ट्रेट का संबंध में काले वाले हवेली से
सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह के निधन के मात्र 10 साल में ही 1849 में इस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे पंजाब को अपने नियंत्रण में कर लिया था। कालावाले सरदारों के वंसजों के मुताबिक अतर सिंह के निधन के बाद अंग्रेजों ने स. लाल सिंह को बटाला का मजिस्ट्रेट बनया। लाल सिंह के 1929 में अमृतसर का आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया।
पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी अपनी पुस्तक में किया है उल्लेख
उल्लेखनीय है कि काले पिंड के सरदारों पर कई पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पुस्तक ‘द लास्ट सनसेट: राइज़ एंड फ़ॉल ऑफ़ द लाहौर दरबार’ और ‘सिख आर्मी आफ डिक्टशन’ जो सिख इतिहास पर लिखी गई है में काला पिंड के सरदारों का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा जीएनडीयू के पंजाबी विभाग के हेड आफ डिपार्टमेंट डा. धरम सिंह द्वारा 1978-79 में लिखी पुस्तक ‘काले वाला सरदार’ और लैप्री ग्रेफन द्वारा 1909 में लिखी पुस्तक “ चीफ्स आफ पंजाब एंड नोटेबल फैमिली” में पूरा इतिहास मिलता है।
शाम सिंह अटारी वाला की हवेली की तरह भव्य थी हवेली
बताया जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह के रिश्तेदार और जरनैल रहे शाम सिंह अटारी की हवेली तरह ही काले पिंड के सरदारों की हवेली भी चार मंजिला थी। लेकिन सिख सामराज्य के पतन और अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों के चलेत यह हवेली अपनी आभा खोती गई और वर्तमान में खंडहरों में तबदील हो गई।
55 फीट ऊंची थी जरनैलों की हवेली
बताया जाता है कि अपने वैभवकाल में जरनैल अतर सिंह की चार मंजिला हवेली करीब 55 फीट ऊंची थी। यह सिख, राजपूत और मुगल वास्तु कला का उम्दा नमूना थी। इसकी दिवारों पर बारीक बेलबूंटों की नक्काशी, मेहराबदार झरोखे और दरवाजे आज से करीब 250 साल पहले सिख वैभव को आज भी दर्शाते हैं। इस हवेली का निर्माण माह की दाल, चूना और गुड़ के मिश्रण से किया गया है, जबकि दिवारों का प्लास्टर भूसा, गोबर और मिट्टी से किया गया है। इसके बाद इसपर सिमेंट बारीब परत लगाई गई है, जबिक छतें लकड़ी की थी, जिसकी वजह से इसका तापमान गर्मियों में सामान्य से 5 डिग्री कम रहता है। हवेली की छतों पर की गई आयल पेंटिंग धुंधला ही आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।
