ओजस्कर पाण्डेय
ये तो हम सभी जानते हैं कि बच्चा अपराधी पैदा होता नहीं है। फिर समाज, समुदाय व परिवार में वो कौन सी चीजें जो उसे अपराध करने की और धकेलती है। हम सभी को इस मानसिकता को समझना होगा। न्यायिक प्रक्रिया के पहले पायदान पर पुलिस होने के चलते बच्चों द्वारा किये गए अपराध के मामलों में पुलिस अधिकारी की संवेदनशीलता बहुत अहम हो जाती है। एक और बड़ा सवाल बच्चे की उम्र को लेकर भी है।
किशोर न्याय अधिनियम के अनुसार 18 वर्ष से कम उम्र का कोई भी व्यक्ति बच्चा है। निर्भया प्रकरण के बाद 2015 में इस अधिनियम में कुछ परिवर्तन किये गए। इस कानून में अपराधों को सजा के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिन अपराधों में कम से कम सात साल की सजा का प्रावधान है उन्हें जघन्य अपराधों की श्रेणी में रखा गया है और ऐसे अपराध करने वाले 16-18 वर्ष के बच्चों को वयस्क की तरह माना जाए या बच्चे की तरह उस पर कार्यवाही की जाए यह जिम्मेदारी किशोर न्याय बोर्ड एवं बाल न्यायालय को दी गयी है. बोर्ड को इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत भी तय किये गए। इस तरह के मामलों में पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के भी आदेश दिए गए हैं। परन्तु ऐसे अपराध जिनमें सात साल से कम सजा का प्रावधान है, पुलिस को मामले से सम्बंधित दस्तावेज को किशोर न्याय बोर्ड के सामने प्रस्तुत करने और उनके दिशानिर्देशों पर कार्यवाही किये जाने की बात कही गयी है। इस कानून के अंतर्गत देश के प्रत्येक थाने में बाल कल्याण पुलिस अधिकारी नियुक्त करने, उसे प्रशिक्षित करने और जिला स्तर पर विशेष किशोर पुलिस इकाई गठित करने के भी प्रावधान किये गए हैं। कानून में साफ कहा गया है कि विधि का उल्लंघन करने वाले बच्चों को पकड़ने, उनसे बातचीत करने और उन्हें किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करने के दौरान पुलिस वर्दी में नहीं रहेगी. इसके पीछे मंशा यही है जहां तरफ एक बच्चा बिना किसी भय के अपनी बात रख सके वहीं दूसरी तरफ उस बच्चे के खिलाफ समाज में कोई गलत संदेश न पहुंचे। समाज में लोगों को किशोर न्याय कानून को समझने की जरूरत है।
ऐसे में पुलिस के साथ-साथ न्यायिक अधिकारियों की भी क्षमता वृद्धि की आवश्यकता है ताकि वे किशोर न्याय कानून की मूल भावना को समझ सके और कानून सम्मत कार्यवाही कर सकें। ऐसे कई प्रकरण सामने आते हैं जब अपना काम कम करने और असंवेदनशीलता के चलते बच्चों की उम्र को बढ़ा कर दिखा दिया जाता है और उसे व्यस्क कैदियों के साथ जेल में रहने को बाध्य होना पड़ता है। यह खुद समझा जा सकता है बच्चे यदि वयस्क कैदियों के साथ रहेंगे उनका किस तरह से मानसिक और शारीरिक शोषण होगा और छूटने का बाद भी क्या वे आसानी से समाज की मुख्यधारा में वापस लौट पाएंगे। अतः जैसा की इस कानून में स्पष्ट लिखा है 18 वर्ष से कम उम्र के ऐसे बच्चे जिन्होंने कानून का उल्लंघन किया हो उसे किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष अवश्य प्रस्तुत किया जाए। उनके साथ अपराधी की तरह व्यवहार न कर उनके पुनर्वासन के सक्रिय प्रयास किए जाए। जिस संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टिकोण के साथ हम अपने बच्चों को सुधर जाने का अवसर प्रदान करते हैं कहीं न कहीं वही प्रयास हमें इन बच्चों के साथ भी करके देखने जरुरी हैं। हां कानूनी प्रक्रिया को ध्यान में रखने की जरूरत है।
कानून नियमों की एक प्रणाली है, जो व्यवहार को विनियमित (रेग्यूलेट) करने के लिए सामाजिक या सरकारी संस्थानों के माध्यम से बनाई और लागू की गई थी। यह एक ऐसी प्रणाली है, जो प्रत्येक व्यक्ति या समुदाय को राज्य की इच्छा का पालन करने के लिए विनियमित और सुनिश्चित करती है। कानून समाज के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह नागरिकों के लिए आचरण के मानदंड (नॉर्म) के रूप में कार्य करता है। यह सभी नागरिकों के व्यवहार और सरकार की तीनों शाखाओं पर समानता बनाए रखने के लिए उचित दिशा-निर्देश और व्यवस्था भी प्रदान करता है। यह समाज को सुचारू रूप से चलाने का इरादा रखता है। उचित कानून के बिना, अराजकता (केओस) होगी और यह योग्यतम की उत्तरजीविता (सर्वाइवल) होगी। यदि किसी समाज में उचित नियम या कानून नहीं हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति अपने मामले में न्यायाधीश होगा और समाज में सामंजस्य (हार्मनी) भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। हम कानून विकसित करके और अपने समाज के विभिन्न पहलुओं में बदलाव लाकर एक पुलिस राज्य से एक कल्याणकारी राज्य में चले गए हैं। न्याय प्रशासन में और न्यायिक समानता के लिए ईंधन के रूप में कानून एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कानून हमेशा सही और गलत, वैध और गैरकानूनी, कर्तव्यों के साथ प्राप्त अधिकार, शांति को बढ़ावा देने, समानता को बनाए रखने, पीड़ितों के न्याय, आदि पर ध्यान केंद्रित करता है। यह तब प्राप्त किया जा सकता है जब कोई समाज प्रगति कर रहा हो और अपने कानूनों में किए गए परिवर्तनों को स्वीकार कर रहा हो, उदाहरण के लिए – 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा। शांति बनाए रखने और राष्ट्र को बढ़ावा देने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि नागरिक देश के कानूनों का पालन करें। न्याय प्राप्त करने के लिए सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। यह सिद्धांत भारत के संविधान में अनुच्छेद14 समानता के अधिकार के तहत भी निहित है। यह अनुच्छेद बिना किसी भेदभाव के सभी को समान रूप से महत्व देता है और उनके साथ समान व्यवहार करता है। सभी व्यक्तियों के साथ समान परिस्थितियों में समान व्यवहार किया जाना चाहिए। इस अधिकार का दावा भारत के क्षेत्र में कहीं भी किया जा सकता है और यह नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों के लिए उपलब्ध है।
किसी देश का विकास सूचकांक (इंडेक्स) मानव संसाधन की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। बच्चे इस देश का भविष्य हैं और इस प्रकार, इस देश के बच्चों के समुचित विकास को सुनिश्चित करने के लिए राज्य की ओर से एक बड़ी जिम्मेदारी बनती है। यह विभिन्न देशों को आयु सीमा तय करने की स्वतंत्रता देता है कि कौन बच्चा है। भारत में किशोर (जुवेनाइल) न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) पास करने के बाद 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बच्चा माना जाता है, क्योंकि एक बच्चे और वयस्क की मानसिक स्थिति अलग होती है; इसलिए कानून के अलग-अलग दायरे में उनके साथ अलग से व्यवहार करने की आवश्यकता है। इसलिए हमारी कानूनी प्रणाली में विभिन्न प्रावधान हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि समान कानूनी प्रणालियों के प्रचलन के कारण बच्चों को कोई हानि न हो। बाल अधिकारों पर यूएन कन्वेंशन का अनुच्छेद-19, घर के अंदर और बाहर, बच्चों की सुरक्षा का प्रावधान करता है। बाल सुरक्षा प्रणालियाँ आमतौर पर सरकार द्वारा संचालित सेवाओं का एक समूह है, जो कम उम्र के बच्चों और युवाओं की सुरक्षा और परिवार की स्थिरता को प्रोत्साहित करने के लिए डिज़ाइन की गई है। यूनिसेफ बाल संरक्षण प्रणाली को इस प्रकार परिभाषित करता है: सभी सामाजिक क्षेत्रों में आवश्यक कानूनों, नीतियों, विनियमों और सेवाओं का समूह– विशेष रूप से सामाजिक कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और न्याय – संरक्षण और सुरक्षा से संबंधित जोखिमों का समर्थन करने के लिए। ये प्रणालियाँ सामाजिक सुरक्षा का हिस्सा हैं, और इससे परे हैं। रोकथाम के स्तर पर, उनके उद्देश्य में सामाजिक बहिष्कार (एक्सक्लूजन) को कम करने के लिए परिवारों का समर्थन करना और उन्हें मजबूत करना, अलगाव (सेपरेशन), हिंसा और शोषण के जोखिम को कम करना, शामिल है।
स्थानीय अधिकारियों, गैर-राज्य प्रदाताओं (नॉन स्टेट प्रोवाइडर) और सामुदायिक समूहों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के साथ, जिम्मेदारियां अक्सर सरकारी एजेंसियों में फैली हुई हैं, जो प्रभावी बाल संरक्षण प्रणालियों के क्षेत्रों और घटकों के बीच समन्वय (कॉर्डिनेशन) बनाती हैं। 18 वर्ष की कम आयु के किसी व्यक्ति के लिए, जिसने अपराध किया हो, विचार व व्यवहार की अलग प्रक्रिया बनाई गई है। उनके साथ वयस्क अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, इसका कारण यह है कि बच्चों को वयस्कों की अपेक्षा कम दोषी माना जाता है। क्योंकि व जल्दबाजी में काम कर सकते हैं, विचार कर पाने में असमर्थ होते हैं, और आसानी से किसी के भी प्रभाव में आ जाते हैं। इसके आगे वयस्कों को दिय गया दंड, युवाओं के लिए बहुत सख्त माना जाता है। किशोर कानूनों का जोर किशोरों के सुधार एवं पुनर्वास पर होता है ताकि उन्हें भी अन्य बच्चों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाने का मौका मिल सके, पर एक और विपरीत विचार धारा भी है जो यह जोर देकर कहती है की किशोर अपराधी हिंसक अपराध करते हैं जिनसे समाज को सुरक्षित किया जाना चाहिए और किशोर न्याय व्यवस्था उन्हें पुचकार रही है। यह आंशका है की यह दूसरी विचारधारा जोर पकड़ेगी और किशोर अपराधियों के साथ वयस्क अपराधियों सा व्यवहार करने या किशोर कानून कठोर बनाने के लिए दबाव बनाया जाएगा, खास तौर पर गंभीर अपराधों के लिए।
बच्चा उस समाज का एक हिस्सा होता हैं जिसमें वह रहता है। अपनी अपरिपक्वता के कारण वह अपने आस पास के माहौल और सामाजिक संदर्भ से प्रेरित हो जाता है, उसके आसपास का माहौल और सामाजिक संदर्भ उसे किसी खास क्रिया के लिए उकसाते हैं। विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों के साथ कम करना आसान नहीं होता, किशोर न्याय व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले ज्यादातर किशोरों का घर परिवार नहीं होता और वे दुसरे इलाकों में जाकर जीविकोपार्जक करते हैं। वे इस सुरक्षा से नफरत करते हैं क्योंकी वे बहुत सालों से खुद को सम्भालते आए हैं, न तो किसी पर निर्भर रहे हैं और नही किसी की सलाह लेते रहे हैं। ये बाल – वयस्क हैं और अपने फैसले खुद लेते रहे हैं। किशोर न्याय व्यवस्था इन बाल–वयस्कों को बच्चों में परिवर्तित करना चाहती है। क्या ऐसा कर पाना संभव है?
एक प्रसिद्ध कहावत है “आज के बच्चे कल के नागरिक हैं”। बच्चे किसी भी राष्ट्र की संपत्ति होते हैं और यदि उनका शोषण किया गया तो राष्ट्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उनका बचपन किसी को नहीं लूटना चाहिए। सबसे अधिक युवा आबादी वाले भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संसाधनों का सदुपयोग हो। सरकार को उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी चाहिए। प्रत्येक नागरिक का यह भी कर्तव्य है कि वह उचित सावधानी से कार्य करे। ये कुछ बदलाव हैं जिन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए और एक बेहतर राष्ट्र के लिए लाया जाना चाहिए। एक राष्ट्र की प्रगति के लिए युवा और कुशल संसाधनों की आवश्यकता होती है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि बच्चों के खिलाफ समान अपराधों को अधिकतम सीमा तक रोका जाना चाहिए। यह तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उपायों का कड़ाई से पालन कर्तव्य या जिम्मेदारी के बजह भाईचारे की भावना के साथ किया जाए। अगर हम सभी बदलाव की दिशा में काम करें, तो इसे बिना समय गंवाए हासिल किया जा सकता है। इसलिए शिक्षितों को बाल कल्याण के बारे में शिक्षित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि अनपढ़ को शिक्षित करना।