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सआदत हसन मंटो, लेखन पर अश्लिलता का ‘ठप्पा’

by Jharokha
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Saadat Hasan Manto, on this side of the border and also on the other side

झरोखा डेस्क : सआदत हसन मंटो। एक ऐसा साहित्यकार जिसने साहित्य साधना तो उर्दू में की, लेकिन उसके साहित्य के कद्रदान उर्दू से कहीं ज्यादा हिंदी ज़ुबान के हैं। देश विभाजन के बाद वह बेशक बंबई (अब मुंबई) से लाहौर जा कर बस गया, लेकिन उसका दिल मज़हबी पाकिस्तान बनने के बाद भी हिंदुस्तान के लिए धकड़ता रहा। मंटो हमेशा भारत विभाजन के खिलाफ रहे। बंटवारे के समय हुए दंगा-फसाद का असर उनके जीवन पर इस कदर पड़ा कि मंटो की सभी कहानियों में अंतरव्यथा दिखी। अपनी इस क़सक को बड़ी वे बेबाकी से रोसनाई से सादे कागज पर शब्दों के रूप में बयां करते चले गए। चाहे वह टोबा टेक सिंह हो या ‘ठंडा गोश्त’।

11 मई 1912 को इस महान कहानीकार और पटकथा लेखक की जयंती है। वैसे तो सआदत हसन मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला में हुआ था, लेकिन उनका बचपन अमृतसर की गलियों में बीता। 13 अप्रैल सन 1919 को अमृतसर के जलियावाला बाग में जो नर संहार हुआ उसे मंटो ने करीब से देखा था। क्योंकि जिस वक्त यह नर संहार हुआ उस वक्त उनकी उम्र करीब नौ साल थी। वह जलियांवाला बाग में हो रहे जलसे में जाना चाते थे। गलियों में निकाले जाने वाले जुलूस में झंडे लेकर शामिल होने के लिए मन मचलता था, लेकिन उनके वालिद थोड़ा कड़क मिज़ाज थे। इसका जिक्र सआदत हसन मंटो ने अपनी कहानी ‘ तमाशा’ में किया है। यह उनकी पहली कहानी थी, जिसे उन्होंने अलिगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में रहते हुए लिखा था। ‘तमाशा’ जलियावाला बाग हत्या कांड पर आधारित कहानी है।

सहादत हसन मंटो की पैदाइश बेशक ब्यास और सतलुज दिया के उस पार समराला के पपरौदी गांव में हुई थी, लेकिन उनकी परवरिश ब्यास और रावी के बीच बसे अमृतसर की गली हवलदारां में हुई थी। मंटो के वालिद ख्वाज़ा गुलाम हसन, अमृतर की अदालत में सत्र न्यायाधीश थे। वालिदा (मां) सरदार बेगम पठान परिवार से थी। खैर वालिद सत्र न्यायाधीश थे तो जाहिर है घर का माहौल भी अनुसाशन वाला ही होगा। वालिद चाहते थे बेटा बैरिस्टर बने पर मंटो दो बार दसवीं में फेल हो गए। उर्दू भी थोड़ी कमजोर थी। खैर मंटो के कथा-साहित्य ने उन्हे जो ख्याति दिलाई वह विरले को ही नशीब होती है। पंडित नेहरू को लिखे एक खत में मंटो ने सुझाव दिया कि ‘सुंदर’ होना ‘कश्मीरी’ होने का दूसरा अर्थ है।

मुस्लिम हाई स्कूल में की प्रारंभिक पढ़ाई

डीएवी कालेज हाथी गेट से सेवानिवत्त प्रो. दरबारी लाल कहते हैं, जिस मुस्लिम हाई स्कूल में मंटो की प्रारंभिक शिक्षा हुई थी वह आज का डीएवी कालेज है। क्योंकि अविभाजित भारत में डीएवी कालेज लाहौर में था। देश विभाजन के बाद यह मुस्लिम हाई स्कूल डीएवी कालेज के रूप में परिवर्तित हो गया। प्रो. लाल ने कहा कि मंटो एक मध्यम श्रेणी के छात्र थे। वह मैट्रिक (10वीं) में दो बार असफल रहे। मंटो का बचपन और किशोरावस्था भी यहीं गली हवलदारां में बीता था, जहां उनके वालिद गुलाम हसन रहते थे। गुलाम हसन उस समय अमृतसर में सत्र न्यायाधीश थे। देश विभाजन के बाद गली हवलदारां के मुस्लमान पाकिस्तान जाकर बस गए। उनमें मंटो का परिवार भी था।

हिंदू सभा कालेज से किया था बीए आनर्स

हिंदू सभा कालेज के पूर्व प्राचार्य डा. संजीव शर्मा कहते हैं सआदत हसन मंटो ने हिंदू सभा कालेज में बीए में दिखिला जरूर लिया था, लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। डा. संजीव शर्मा कहते हैं कालेज के अभिलेखों के मुताबिक वह 1931का दौर था, जब मंटो ने कालेज में दाखिला लिया। वह औसत दर्ज के छात्र थे। बीए प्रथम वर्ष का परिणाम ठीक न आने पर उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। हां, इस दौरान उन्होंने कुछ कहानियां जरूर लिखी थी।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लिया दाखिला

डा. संजीव शर्मा कहते हैं कि उनका रुझान शुरू से ही किस्से-कहानियां लिखने में था। इस बीच उन्होंने ‘ तमाशा’ नाम की कहानी लिखी । अलीगढ. मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए उन्होंने अपनी दूसरी कहानी ‘इंकलाब पंसद’लिखी जो यूनिवर्सिटी की पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसी बच उन्हें टीबी हो गई नौ माह बाद ही वह पढ़ाई छोड. कर कश्मीर चले गए। करीब तीन माह बाद कश्मीर से अमृतसर लौटे। कुछ साल यहां रहने के बाद मंटो रोजगार की तलाश में लाहौर गए और यहीं से उन्होंने अपने साहित्य सफर की शुरुआत की। डा. संजीव शर्मा कहते हैं कि उन्हें अपने कालेज पर फख्र है कि एक कहानीकार, कथाकार और नाटककार के रूप में जाने जाने वाले सआदत हसन मंटो उनके कालेज के छात्र रहे हैं।

भारत में ही रहना चाहते थे मंटो

हिंदी के एसोसिएट प्रो. डा. राजेंद्र साहिल कहते हैं मंटो उर्दू साहित्य का एक ऐसा सख्शीयत हैं, जिनपर अनेकों बार शोध किया जा सकता है। उनकी कहानियां और उपन्यास जितने लोकप्रीय सरहद के उसपार पाकिस्तान में हैं उससे कहीं अधिक भारत में। दर असल सआदत हसन मंटो पाकिस्तान जाना नहीं चाते थे, लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। डा. साहित कहते हैं कि खुद मंटो भारत विभाजन के खिलाफ थे। जबिक उनका परिवार पाकिस्तान में था और मंटो मुंबई। मंटो अपने परिवार से मिलने करांची गए, इसबीच हालात कुछ ऐसे बने की उन्होंने पाकिस्तान में रहने का फैसला कर लिया,लेकिन उन्हें वहां मुजाहिर कहा गया,यह कसक उन्हें ता उम्र सालती। डा. राजेंद्र साहिल कहते हैं, मंटो की आखिरी कहानी ‘टोबा टेक सिंह’थी। भारत बिभाजन के दर्द को महसू किया जा सकता है।

खुद का जेब काटने वाला लेखक

उर्दू-फारसी के लेख डा. साजिद कहते हैं,मंटो की लेखनी बेशक उर्दू ज़ुबान थी,उसके मुरीद उर्दू,फारसी, पंजाबी और हिंदी ज़ुबान के भी लोग थे। मंटो एक ऐसा कहानीकार थे, जिनपर ब्रिटिश इंडिया में तीन बार और देश विभाजन के बाद तीन बार पाकिस्तान में अश्लिलता फैलाने के आरोप में मुकदमे चलाए गए। उनपर आरोप लगाया गया कि मंटो की कहानियां (‘धुआं, बू और काली शलवार जिसे ब्रिटिश इंडिया में लिखा गया था) भारत में और विभाजन के बाद तीन बार पाकिस्तान में (‘खोल दो, ठंडा गोश्त, ऊपन नीचे दरमियान’) अश्लिल मानते हुए मुकदमा चला गया, लेकिन वे इन सभी मामलों में बरी हुए। केवल एक मामले में उनपर जुर्माना लगाया।
डा. साजिद कहते हैं- अश्लिलता परोसने का आरोप ल्रगने पर मंटो ने कहा था ‘मैं पोर्नोग्राफर नहीं बल्कि कहानीकार हूं’। डा. साजिद कहते हैं,’अश्लिलता’ मंटो की कहानियों की आत्मा है। खजुराहो के बुत की तरह । अगर इसे निकाल दिया जाए तो मंटो की कहानियां बिना रूह के ज़िस्म की तरह हो जाएंगी। और यह कोई भी लेखक नहीं चाहेगा कि उसकी रचनाएं बेजान ज़िस्म की तरह हो। यही नहीं कुछ लेखकों ने तो मंटो को खुद की जेब काटने वाला आदमी तक बताया है।

बटवारे से पहले जो साहित्य लिखा क्या उसका भी बंटवारा होगा

प्रो. लक्ष्मी कांता चावला कहती हैं, मंटो जितना पाकिस्तान के थे, उससे कहीं अधिक भारत के थे। मंटो भारत-पाकिस्तान बटवारे के खिलाफ थे। चावला कहती हैं-मंटो खुद लिखते हैं- मैं जनवरी 1948 में भारत को छोड़ पाकिस्तान आया। पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि कहां हूं। वह सवाल भी खड़े करते हैं, खुद से भी और दोनों देशों के हुक्मरानों से भी, बंटवारे से पहले जो साहित्य लिखा गया क्या उसका भी बंटावारा किया जाएगा। पाकिस्तान का साहित्य क्या अलग होगा, अगर होगा भी तो कैसा होगा। प्रो. चावला कहती हैं- ‘टोबा टेक सिंह’ भारत-पाकिस्तान बंटवारे पर आधारित कहानी है। इसमें पूरी कहानी का तानाबाना लाहौर के एक पागल खाने पर बुना गया है। देश आज़ाद होता है,इसके साथ ही भारत-पाकिस्तान दो मुल्क बन जाते हैं। सीमा पर लाल लकीर खिंच जाती है, फिर पागलों की अदलाबदली होती है । हिंदू और सिख पागलों को हिंदुस्तान भेज दिया जाता है तो मुस्लमान को पाकिस्तान ने रख लिया है। शायद यह मंटो के मन की द्वंद्व जो उनके साहित्य में साफ झकता है।

जिस गली में बचपन बीता उसी गली के लोग पूछते हैं कौन है मंटो

जिसकी लेखनी पर भारत और पाकिस्तान के लाखों कद्रान फ़िदा हैं, उन्हीं को उनके ‘वतन’ के लोग भूल चुके हैं। मंटो के पीढ़ी का तो बिरले ही कोई होगा। जिस गली हवलदारा में मंटो का बचपन बीता उसी गली के लोग नहीं जानते की मंटो कौन थे और उनका इस गली से क्या नाता था। मंटो और उनकी रचनाओं के बारे में बताने पर उन्हें ताज्जु़ब होता है,कि ऐसा भी कोई शख्श इस गली रहता था जिस पर भारत और पाकिस्तान दोनों अपना-अपना दावा करते हैं।

Jharokha

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