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thejharokha.com फिचर डेस्क। होली और जुमे की नमाज को लेकर संभल के CO अनुज चौधरी के एक बयान से राजनीतिक गलियारों सहित सुस्लित समुदाय के कुछ लोगों के बीच हंगामा मचा हुआ है। इस वर्ष होली शुक्रवार को जुमा दिन पड़ रही है। इस पर CO अनुज चौधरी ने कहा था कि जिनको रंग से परेशानी हो वह घर पर ही नमाज पढ़ सकते हैं। हलांकि यह बयान क्यों और किस लिए दिया गया इसका हर कोई अपने नजरिए से अर्थ निकाल रहा है।
हलांकि इससे इतर गंगा-जमुनी तहजी की बात अक्सर सेकुलर कहे जाने वाले लोग हर मंच पर करते हैं। होनी भी चाहिए क्यों की इसका जीवंत उदाहरण अवब और अवध के नवाब रहे हैं। नवाबी दौर में तो होली मोहर्रम के दिन ही पड़ी थी और अवध के नवाब ने मातम छोड़ होली खेला था। उस समय मुल्ला, मौलवी, काजी और इस्लामिक धर्म गुरु रहे होंगे, लेकिन रंग को लेकर किसी ने भी हाय तौबा मचाई हो इसका उल्लेख नवाबी शासन में नहीं मिलता। होली में अवध और अवध के नवाबों का उल्लेख न होतो होली का जश्न और इतिहास फीका रह जाता है। इस वर्ष रमजान के के महीने में होली पड़ रही है तो अवध के नवाबों खास तौर से अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह उल्लेख तो बनता है।
कभी अवध के राजा श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण की नगरी रही लखनावती (आज के लखनऊ) को बसाने में अवध के नवाबों की खास भूमिका रही है। अवध के नवाबों का मजहब यूं तो इस्लाम था, लेकिन वे हिंदू त्योहारों को भी धूमधाम से रलमिल कर मनाते थे। पता ही नहीं चलता था कि कौन हिंदू कौन मुसलमान है। इन्हीं त्योहारों में से एक होली है, क्योंकि होली आने में कुछ ही दिन शेष हैं तो चलिए आपको बताते हैं कि अवध के नवाब किस तरह से होली मनाते थे।
अवध के नवाबों और उनकी नजाकत व नफासत पूरी दुनिया में मसहूर है। नवाब आसफुद्दौला से लेकर अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह तक सबने होली खेली है। आसफुद्दौला 1775 से 1797 तक अवध के पहले नवाब रहे। कहा जाता है कि नवाब आसफुद्दौला को होली खेलने का बहुत शौक था। आसफद्दौला ने अवध पर 22 साल शासन किया। आसफुद्दौला तो होली को इतना पसंद करते थे कि हर साल होली पर 5 लाख रुपये का बजट रखते थे। और इन्ही रुपये से होली का जश्न मनाते थे। यही नहीं इनके बाद के भी नवाबों ने खूब होली खेली। अवध के छठे नवाब सआदत अली खान और अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह की होली के चर्चे तो आज भी लखनऊ की गलियों में होते हैं।
अपनी बेगमों संग महल में होली खेलते थे आसफुद्दौला
नवाब आसफुद्दौला के बारे में कहा जाता है कि वह होली की तैयारी एक माह पहले से ही शुरू कर देते थे। होली के दिन आसफद्दौला अपने महल के अंदर ही बेगमों और कुछ खास लोगों के साथ होली खेलते थे। आम जनता महल के अंदर की होली की झलक पाने को उत्तावली रहती थी, लेकिन कोई भी नवाबों की होली देख नहीं पता था।
पूरे दिन चलता था होली का जश्न
कहा जाता है कि महल में नवाबों की होली पूरे दिन चलती थी। होली के जश्न में नाच गाना होता था। इसमें पारंपरिक फाग गाए जाते थे, जिसे राम और कृष्ण की होली का जिक्र होता था। यह जश्न पूरे दिन चलता था।
कृष्ण बन होली खेलते नवाब वाजिद अली
नवाब वाजिद अली शाह के बारे में कहा जाता है कि वह होली में कृष्ण बनजाते थे। जबकि बेगमों को गोपियां बना लेते थे और उनके साथ पूरे दिन रंग और गुलाल में सराबोर रहते थे। नवाब वाजिद अली शाह सभी धर्म को समान रूप से मानने वाले थे, इसीलिए वह होली, दिवाली, दशहरा समेत ईद को भी धूमधाम से मनाते थे।
मोहर्रम में भी खेली थी होली
वाजिद अली शाह को इतना प्रिय थी कि वह मोहर्रम का मात छोड़ होली खेलने लगे थे। उन्हें होली से इतना प्रेम था कि उन्होंने होली पर कई कविताएं रच डाली थी। इस बारे में प्रचलित है कि होली और मोहर्रम एक दिन होने से अवध के हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं की कद्र करते हुए होली खेलने से मना कर दिया। क्योंकि मोहर्रम मात और होली मदनोत्सव होता है। इस बात की जानकारी जब नवाब वाजिद अली शाह को हुई तो उन्होंने ऐस निर्णय लिया कि सब आवाक रह गए।
वाजिद अली शाह ने जब हिंदुओं से पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे है तो उन्होंने कहा कि मोहर्रम के वजह से ऐसा कर रहे हैं। वाजिद अली शाह ने कहा, चूंकि हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं का ख्याल रखा इसलिए हमारा भी फर्ज बनता है कि हम उनकी भावनओं का ख्याल रखें।रखें।
नवाब वाजिद अली शाह ने इसके बाद घोषणा करवाई कि मोहर्रम के दिन ही होली मनाई जाएगी। खास बात यह कि वह खुद इसमें भाग लेंगे।गे। इस घोषणा के बाद नवाब वाजिद अली शाह सबसे पहले होली के उत्सव में भाग लिया।लिया। नवाब वाजिद अली शाह की प्रसिद्ध ठुमरी है-
” मोरे कन्हैया जो आए पलट, अबके होली मै खेलूंगी डटके,टके,उनके पीछे मैं चुपके से जाके,जाके, रंगदूंगी उन्हें भी लिपट के”
चांदी की बाल्टी में घोला जाता था रंग
अवध के नवाबों के बारे में प्रचलित है कि होली के दिन चांदी बाल्टी में रंग घोल कर रखा जाता था। इसे चांदी की ही पिचकारी से नवाब एक दूसरे पर डालते थे। जबिक अबीर और गुलाल भी चांदी के प्लेटों में रखा जाता था, जिसे एक दूसरे के गालों पर मला जाता था।