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कजरौटा: परंपरा, विश्वास और बचपन की यादें

कजरौटा: एक परंपरा जो सदियों से सुंदरता और सुरक्षा का प्रतीक रही है

by Jharokha
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कजरौटा: एक परंपरा जो सदियों से सुंदरता और सुरक्षा का प्रतीक रही है

वह भी क्या दिन थे, जब आंखों में लगाया काजल नन्हे हाथों की हथेलियों से होता हुआ पूरे गाल तक पसर आता था। तभी भी चेहरे पर सुंदरता बरकरार रहती थी। मुस्कुराते चेहरते पर यदि मां की नजर पड़ जाय तो कहती हमारे चांद जैसे बेटे को किसी की नजर न लगे। यानि पूरे चहरे पर काजल पसरा हो फिर भी उस जमाने में बच्चे की सुंदरता चांद से की जाती थी और इस कजरारी आंखों वाले चेहरे को सुंदर बनाने में अहम भूमिका होती थी कजरौटा और काजर की। कजरौटा उस जमाने की न केवल आज की सिंगारदानी (शृंगार की वस्तुएं रखने का पात्र) था, बल्कि प्रेत आत्माओं से लड़ने और बुरी नजर से बचाने का कारगर हथियार और नजरबट्टू होता था। कजरौटा लोहे, तांबा या पीतल से बना काजल रखने का एक डंडीदार पात्र होता है जो बच्चे के सिरहाने रखा जाता है।

कजरौटा और इसकी उपयोगिता से आज की पीढ़ी अनजान है। कजरौटा उनके लिए किसी अजूबा से कम नहीं है । यह शब्द अबूझ है। नए रूप में इसे सुरमेदानी या काजल की डिबिया कहिए तो लोग झट से समझ जाएंगे। अब तो बाजार में काजल स्टिक आने लगे हैं। काजल या काजर और कजरौटा का संबंध व्यक्ति से उस दिन जुड़ जाता है जब बच्चे के पैदा होने के छठवें दिन छठी का दिया रखा जाता है। सउरिहा घर में इसी दिन बच्चे बुआ कजरौटा से निकाल कर बबुआ की आंख में काजर (काजल) लगाती हैं। काजल लगाने के बदले वह अपनी भाभी-भइया से भारी-भरकम नेग भी लेती हैं। इसी दिन से कजरौटा और बचवा संबंध प्रगाढ़ होता जाता है।

दरिदर का काजर (दीपावली के दिन तैयार किया जाने वाला काजल) तो याद ही होगा। रात को घर में दीपमाला के बाद जब तड़के दादी या अम्मा एक हाथ में दीया और दूसरे से सूप बजाते हुए अन्य औरतों के साथ गांव से बाहर पहुंचती और दरिदर फूंकने के बाद बैठ कर काजर पारती तो उनके साथ गया बच्चा भी बैठ कर उत्सुकता के साथ देखता कि यह क्या हो रहा है। एक हमरी अम्मा ही नहीं बल्की पूरे गांव की अम्मा और दादी दरिदर का काजर बनाने में लगी होती थीं। सुबह होते ही वही दरिदर का काजर बबुआ की आंखों में भर दिया जाता था। उपर से माथे पर एक बड़ा का काला टीका चेहरे सुंदरता को बढ़ाता। यही कचकचउआ काजर लगाए जब बच्चा बाहर घूमता तो हंसी -हंसी में कोई भी कह देता था, ‘देख करीमना क माई दरिदर क काजर लगा के भेजले बा’ शायद दरिदर क काजर वाला यह शब्द गौण हो गया है। काजर और कजरौटा तो जैसे अनपढ़ों और गवारों की निशानी बन कर रह गया है।

काजर लागाने से बच्चे की आंखें बड़ी और कजरौटा सीरहाने रखने से बच्चे पर किसी बुरी आत्मा की नजर नहीं पड़ती की घाराणा से पीढ़ी दर पीढ़ी साथ निभाने वाला काजर और कजरौटा का नाता अब लगभग टूट चुका है। एक वह भी दौर था जब सोहर, गारी या विवाह गीत में कजरौटा शब्द का इस्तेमला किया जाता था। बचपन की स्मृतियों और ग्रामीण परिवेश की याद दिलाते कजरौटा के बारे में कुछ यूं कहा गया है-
हमें लगता है।

मगर काजर , कजरौटे के शान में कुछ लोकगीत भी सुनिए पहले —
आंखों में काजल कारी
मुखवा पर पान की लाली
लीलरा पर सोभेला चंदनवा
पहुनवा राघोss
सोभेला सुनैना के अंगनवा
पहुनवा राघो ss
जो पाहुन यानी दूल्हा है ,वह आंगन में खूब शोभा दे रहा है। उसके आंखों में काजल है, मुंह में पान है और माथे पर चंदन का टीका है। यह दूल्हे के स्वागत में गाया जाने वाला विवाह गीत है भोजपुरी में।
काजल कजरौटा में ही रहता है। कजरौटा महत्वपूर्ण है !
आगे एक और गीत–
ए बहिनी चोरी भईल सुरमेदानी
काहे के कजरौटा से हम कजरा पारेब
ए बहिनी काहे से परीहैं जेठानीss
सोने के कजरौटा से हम कजरा पारेब
ए बहिनी हउदा में परीहैं जेठानी
ए बहिनी चोरी भईल सुरमेदानी ss

लोहे की दो छोटी डब्बियों वाला यह कजरौटा भी कमाल की चीज है। मीठे तेल में रूई की बाती जलाकर उसके उठते धुएं तैयार किया जाने वाला काजल आज के आई ड्रॅाप से तनिक भी कम न था। उस जमाने में तो मेडिकल स्टोर भी ना के बराबर होते थे, गांवों में थे ही नहीं। यदि कोई हाट- बजार जाता तो दादी कहतीं एगो ढोलहिया दवाई लेते आना काजल में लगाना है। टेरामाइसीन का यह छोटा सा मरहम कई नामों से जाना जाता था। उन दिनों यह काजल बनाने की दवाई, मोछइलवा दवाई, ढोलहिया या पिलपिलहिया दवा से नाम से भी सुलभ मिल जाता था। इसे किराने के दुकानदार भी रखते थे जो 20 पैसे में दिया करते थे।

कजरौटा में तैयार हुआ यही काजर बच्चे के मुंडन होने तक उसकी आंखों में लगाया जाता था। कजरौटा एक ऐसा विश्वास और प्रेम का बिना धार वाला हथियार था जो कपड़े के एक छोटे से टुकड़े में बंधा हर वक्त परछांई की तरह बच्चे का साथ निभाता था। समय बदला और कजरौटा के प्रति लोगों की सोच भी। लेकिन यूपी, बिहार में बच्चे के पैदा होने या विवाह के दिन कजरौटा इतराते हुए अपनी मौजूदगी उसी तरह दर्ज करवाता है जैसे तरह-तरह की मिठाईयों की भीड़ में पीछे खड़ा लड्डू मंगलवार को सीना ताने हलवाई की दुकान पर पहली पंक्ति में आ खड़ा होता है।

कजरौटा के शान में भोजपुरी की एक बुझनी ( पहेली) है-
‘काजर के कजरौटी बेटी, इंगुर के टीकार
बईठल बाड़ी पुतली डाढ़ि , देखातारी संसार ।।’
अगर इस पहेली को बुझ गए तो कमेंट करके जरूर बताएं, न बूझ पाएं तो गुगल पर सर्च कर के देख लें क्या बतात है।

Jharokha

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