
अमृतसर की घरती हमेशा से बलिदानियों की धरती रही है। यहां जगह-जगह वीरता और कुर्बानियों का इतिहास बिखरा पड़ा है। बस जरूरत है तो इन बिखरे हुए इतिहास के पन्नों को समेटने और सहेजने की। आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। ऐसे में हमारा फर्ज बनता है कि हम शहीदों के उन स्थलों के बारे में जाने, जिससे अंजान हैं। शहर के राम बाग यानि कंपनी बाग के पास स्थित नामधारी शहीदी स्मारक किसी देवालय से कम नहीं है।
यह वही पवित्र स्थान है जहां चार नामधारी सिखों ने हंसते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी। तस्वीर में दिख रहा यह बरगद का पेड़ दो सौ साल से भी अधक पुराना है, जो अमर बलिदानियों की यश गाथा आज भी बड़े गर्व के साथ सुनाता है, जिसे सुन कर रोम-रोम पुलकित हो उठता है। नामधारी सूबा अमरीक सिंह जी कहते हैं कि यह वहीं स्थान हैं जहां 1871 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने चार नामधारी सिख संत बाबा लहिणां सिंह, संत बाबा बीहला सिंह, संत फतेह सिंह को सजा-ए-मौत का हुक्म देते हुए फांसी के फंदे पर लटका दिया था।
महाराजा रणजीत सिंह की कचहरी और अंग्रेजों का थाना हुआ था यहां
वे कहते हैं कि आज जिस स्थान पर यह पवित्र स्थल हैं, इसके बगले में पहले महाराजा रणजीत सिंह की कचहरी लगा करती थी। अंग्रेजों के अधिकार में आने के बाद आज जिस इमारत में अजायब घर बना है वहां अंग्रेजों का थाना हुआ करता है। यह बट वृक्ष चौराहे पर स्थित था, जहां चार नामधारी सिंहों को अंग्रेजों ने शहीद कर दिया था।
इसलिए दी गई थी फांसी
महाराजा रणजीत सिंह के साथ हुए समझौते में यह शर्त थी कि बर्तानवी फौज उनके राज्य में गोहत्या नहीं करेगी। लेकिन पूरे हिंदुस्तान पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने कत्लखाने खोलने शुरू कर दिए। सतगुरु श्री राम सिंह जी के करीबी सिखों ने अंग्रेजों की इस नीति के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया और इसकी शुरुआत उन्होंने अमृतसर से की।
3 मई 1847 को अमृतसर के घंटाघर वाली जगह पर अंग्रेज अधिकारियों ने बूचड़खाना खोल दिया। और गोमांस सरेआम बिकने लगा। नामधारी सिखों के लिए अंग्रेजों की करतूत असनीय थी। आखिरकार सतगुरु का सहारा लेकर 14 और 15 जून 1871 की मध्यरात्रि नामधारी सिखों ने बूचड़खाने में वध के लिए लाई गई सौ से अधिक गायों को सुरक्षित बाहर निकालने के साथ ही बूचड़खाने को तहसनहस कर दिया।
सेशन जज की अदालत में भारत माता के जब यह शेर पेश हुए तो कहा उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया है। उन्होंने बूचड़खाने बंद करवा कर अपना धर्म और हिंदुस्तान की आन को कायम रखा है। इससे तमतमाई वर्तानवी हुकूमत ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बगावत मानते हुए फांसी की सजा सुनाई , जिन्हें कंपनी बाग के सामने स्थत बरगद के पेड़ से फांसी पर लटका दिया गया। वह बरगद का पेड़ आज भी मौजूद हैं, जहां इर शहीद सपूतों को रोजाना श्रद्धासुमन अर्पित किए जाते हैं।