
Varanasi News, झरोखा न्यूज डेस्क। स्वतंत्रता संग्राम में सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने हिस्से का योगदान डाला था। चाहे वह महिला हों या पुरुष। राजे-रजवाड़े हों या रंक और फकीर । तो भला आजादी के इस महायज्ञ में आहुति देने से तवायफें पीछे कैसे रह जाती। आइए आजादी के अमृत महोत्व पर याद करते हैं उन गुमनाम तवायफों जिनके कोठे क्रांतिकारियों को पनाह देते रहे
साहित्य और श्रद्धा का संगम बनारस Varansi में 19वीं शदी के आरंभ में यहां के कई चौक-चौराहों और गलियों में महफिल सजाई जाती थी। शाम ढ़ते ही दिनभर वीरान सी रहने वाली तवायफों की गलियां गुलजार हो जाती थी। मोतियों के गजरे और इत्र से उठने वाले भीनी-भीनी सुगंध से इनके कोठे गमक उठते थे। तबले की थाप और घुंघरुओं छनक वाले इन तवायफों के कोठों पर आजादी की रणनीति तैयार की जाती थी। यही नहीं बनारस Varansi के तवायफों के कोठों पर उनके द्वारा सजाई गई संगीत की महफिल में रईसों से धन एकत्र कर यह पैसा क्रांतिकारियों की मुहिम को जिंदा रखने के लिए मुहैया करवाया जाता था।
यही नहीं बनारस यानी काशी के राज दरबार, रईसों की कोठियों सहित मंदिरों और मठों में भी इन कोठेवालियों की महफिल जमा करती थी, इनका मकसद एक होता है। इस गीत-संगीत से मिली रकम वह गुपचुप तरीके से क्रांतिकारियों तक पहुंचाती थी, जिसकी भनक गोरी सरकार तक को नहीं थी। शक होने पर कई बार अंग्रेजों ने तवायफों के कोठों पर छापे भी मारे, लेकिन मिला कुछ नहीं। कहा जाता है कि काशी के लोगों में गीत- संगीत का पूरा शौक रहा है। अपने इसी शौक के चलते बनारस के दालमंडी में शाम ढ़लते भांग और पान मुंह में दबा कर कलाई में मोतियों का गजरा लपेटे शाम ढलते ही यहां के रईश इ कोठों पर पहुंच जाते थे। यह सिलसिला 1940 के आसपास तक चलता रहा।

रसूलन बाई
क्रांतिकायों की मदद करने वाली यदि किसी तवायफ का नाम लिया जाए तो इनमें सबसे पहले रसूलन बाई का नाम आता है। रसूलन बाई के उस्ताद शंभू खां थे। कहा जाता है कि रसूलन बाई का कोठा दालमंडी में था। रसूलन बाइक के कद्रदानों में बनारस के रइस तो शामिल थे ही, अंग्रेज अफसर भी इनके ठुमकों के मुरीद थे। रसूलन बाई का कोठा क्रांतिकारियों का प्रमुख अड्डा भी था। यहां तक रसूलन बाई ने अपने गहने तक क्रांतिकारियों को दे दिए। अंग्रेजों ने इन्हें बहुत यातनाएं दी थी।

जद्दन बाई
दूसरा नाम आता है जद्दन बाई का। कहा जाता है कि नर्गिस इन्हीं जद्दन बाई की बेटी थीं। दरगाही मिश्र और उनके सारंगी वादक बेटे गोवर्धन मिश्र से गीत-संगीत की तालीम लेने वाली जद्दन बाई का कोठ बनारस में चौक थाने के पासपास होता था। और यहीं पर इनकी महफिल सजती थी। जद्दन बाई देश की स्वतंत्रता के लिए कई बार क्रांतिकारियों को अपनी महिफल में शरद दी थी।

सिद्धेश्वरी देवी
इसकी तरह एक नाम सिद्धेश्वरी देवी का भी आता है। वह प्रसिद्ध तवायफ चंदा बाई की बेटी थी। सन 1900 के आसपास उनका कोठा मणिकर्णिका घाट के पास सजता था। यहीं पर उनका घर भी था। सिद्धेश्वरी देवी ने आजादी के कई गीत गाए। इन्होंने कला के कद्रदानों से एकत्र धन को देश की आजादी के लिए समर्पित कर दिया था। धन्य हैं ऐसी तवायफें जिन्हें देश आज नमन करता है।