सिद्धार्थ
प्रकृति के प्रति समर्पण का महापर्व छठ पूजा सात नवंबर वीरवार को है । वैसे से तो इसकी तैयारी गोर्वधन पूजा के दूरे दिन से ही शुरू हो जाती है।
भगवान सूर्य और उनकी दोनों पत्नियों उषा और प्रत्युषा को सर्मित इस पर्व की शुरुआत पांच नंवबर को नहाय खाय से हो जाती है। इस दिन व्रति नदी, सरोवर या घर पर स्नान कर शाम के समय सात्विक भोजन करते हैं। इसमें कद्दू की सब्जी, चने की दाल और चालव शामिल होता है।
दूसरे दिन यानी छह नवंबर को खरना होता है। इस दिन छठ का व्रत रखने वाले स्त्री या पुरुष पूरे दिन उपवास करते हैं। सूर्यास्त के बाद सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं। इसमें गुड़ की बनी खीर, रोटी और फल का सेवन करते हैं।
इसके बाद तीसरे दिन सात नवंबर को 24 घंटे का निर्जला व्रत रखते हैं। और शाम को नदी या तालाब के किनारे बेदी बना कर सूर्य की उपसना करते हैं और जल में खड़े हो कर अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्य दे हैं। इसके बाद आठ नवंबर शुक्रवार को ब्रह्ममुहुर्त में फिर उसी सरोवर के किनारे पहुंच कर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत संपन्न करते हैं।
छठ महा पर्व का का शुभ
इस वर्ष कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि दिन वीरवार 7 नवंबर को को छठ पूजा दोपहर 12 बजकर 40 मिनट से शुरू हो रही है।
छठ पर्व का धार्मिक पक्ष
यह ठीक-ठीक तो नहीं कहा जाता सकता है सबसे पहले छठ की पूजा किसने की थी। लेकिन मान्यता है कि माता सीता ने भी छठ का व्रता रखा और सूर्य की पूजा की थी।
महाभारत में भी छठ पूजा का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि द्रोपदी ने भी सूर्य की उपासना की थी। इसके अलावा स्वयं सूर्य पुत्र कर्ण भी गंगा स्नान के बाद घंटों कमर तक जल में खड़े रह कर सूर्य की उपासना करते थे।
यह भी मान्यता है कि मगध नरेश जरासंध ने भी अपने कुष्ठ रोग को दूर करने के लिए ज्योतिषियों की सालाह पर गंगा के जल में खड़े रह कर सूर्य की पूजा किया करता था।
अस्त और उदय होते सूर्य को अर्घ्य क्यों
छठ व्रत का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस व्रत में अस्त होते सूर्य को पहली अर्घ्य दी जाती है। इसके पीछे मान्यता है कि हम जीवन के हर चरण चाहे वह दिन हो या रात, सुख या दुख सभी स्थितियों में भगवान के प्रति कृतज्ञ रहें।
इसी तरह दूसरे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का तात्पर्य यह है कि नए जीवन, ऊर्जा और आशा का स्वागत करना है। यह प्रकृति के चक्र और मानव जीवन की बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रतीक भी है।
बढ़ी है छठ महापर्व की व्यापकता
पहले छठ पर्व नेपाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, ओडिशा और बंगाल के कुछ हिस्सों में मनाया जाता था, लेकिन अब छठ की व्यापकता बढ़ी। अब यह पर्व पूरब से निकल कल देश ही नहीं विदेशों तक में फैल चुका है। यानी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग जहां-जहां गए अपने व्रत-त्योहार, संस्कृति और परंपरा अपने साथ लेकर और उसका आलोक चारों तरफ फैलाया।
क्यों खाया जाता है छठ पूजा के नहाए-खाए में कद्दू की सब्जीनहाए-खाए के दिन कद्दू खाने के पीछे धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी है. उनका कहना है कि कद्दू में पानी की मात्रा अधिक होती है, जो शरीर में पानी की कमी को दूर करता है. यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि छठ पूजा के दौरान श्रद्धालु 36 घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं।
छठ व्रत में कद्दू और गन्ना ही क्यों
छठ पूजा की शुरुआत कद्दू और गुड़ से होता है। ऐसा क्यों। इस सवार के जवाब में पं. नंदकिशोर मिश्र कते हैं कद्दू और गुड़ से पोषक तत्वों की भरपाई होती है। जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती है। नहाए-खाए में चने की दाल भी शामिल की जाती है, जो प्रोटीन का एक उत्कृष्ट स्रोत है। इस प्रकार, कद्दू और चना की दाल का संयोजन न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है।
पं. नंदकिशोर मिश्र कहते हैं कि छठ पूजा में गन्ना, कच्ची हल्दी, चुरमुड़ा, अदरक सहित अन्य फलोंको भी शामिला किया जाता है। इसके पीछे तर्क यह है कि यह किसान की पहली फसल होती है जिसे व ऊर्जा के देवता सूर्य को समर्पित कर प्रकृति के प्रति अपना समर्पण करता है।
समाज को भी जोड़ता है छठ पर्व
छठ पर्व जाति धर्म से उपर उठकर समाज को भी जोड़ता है। क्योकि छठ पूजा में प्रयोग की जानी वस्तुएं समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों से खरदी जाती। मसलन कच्चे बांस की टोकरी, सूप, मिट्टी के बर्तन आदि। इन वस्तुओं को खरीदने से वंचित वर्ग भी खुद को समाज का हिस्सा मानता है। यही नहीं छठ पूजा से देशभर में अरबों रुपये का कारोबार भी होता है।