गाजीपुर : इस्लाम में रमजान के महीने को पाक-पवित्र महीना माना गया है। ऐसी मान्यता है कि (Ramadan 2024) रमजान अल्लाह व्यक्ति के गुनाहों को माफ कर देता है। रमजान में लोग सभी प्रकार की बुराइयों से दूर रहते हैं। इस्लाम में अल्लाह के करीब जाने का मौका मिलता है। इस माह में रोजा रखकर खुदा की इबादत की जाती है और अल्लाह अपने बंदों को रहमत और बरकत देता है। रोजा सूरज निकलने से लेकर डूबने तक रखा जता है। इसके इफ्तार से रोजा खोला जाता है और सेहरी से रोजा शुरू किया जाता है। हाफीज मोहम्मद असलम बताते हैं कि इस साल रमजान 12 मार्च 2024 दिन मंगलवार से रखा जाएगा। उन्होंने कहा कि रमजान का चांद दिखने के अगले दिन रोजा शुरू हो जाता है।
हाफीज मोहम्मद असलम कहते हैं कि ‘इस्लामिक मान्यता है कि इस माहे रमजान में खुदा से मोहम्मद साहब को कुरान की आयतें मिली थीं। तब से इस्लामी कैलेंडर के नौवें माह रमजान को पवित्र मानते हैं।’ उन्होंने बताया कि इसमें इस्लाम को मानने वाले खुदा की इबादत के लिए 30 दिन तक रोजा रखते हैं। रोजे के अंतिम दिन ईद-उल-फितर मनाते हैं।
क्या हैं रमजान के तीन असरे और उनका महत्व
हाफीज मोहम्मद सोएब बताते हैं कि रमजान के 30 दिन तीन अशरों यानी भागों में बंटे हुए हैं। वे कहते हैं कि रमजान के तीन अशरे रहमत, बरकत और मगफिरत है। रमजान के पहले 10 दिन रहमत के होते हैं। इसमें खुदा की इबादत, नमाज और दान करते हैं। यह पहला अशरा होता है।
इसी तरह रमजान का दूसरा अशरा भी 10 रोज का होता है। इसमें जाने-अनजाने में किए गए गुनाहों के लिए माफी मांगी जाती है। मोहम्मद सोएब कहते हैं कि नेक बंदों को खुदा रहमत और बरकत देते हैं।
रमजान का तीसरा और अंतिम असरा भी 10 रोज का ही होता है। इस असरे में लोग खुदा से दुआ करते हैं कि उनको उनके किए गुनाहों से मुक्ति मिले और मौत के बाद उन्हें जन्नत में अल्लाह की पनाह मिले।
रमजान में रोजा खोलने का समय
मोहम्मद सोएब अंसारी कहते हैं कि रमजान में सहरी और इफ्तार होता है। रोजा रखने वाले लोग सूरज निकलने से पहले हल्का भोजन, फल, जूस आदि लेते हैं। इसे सहरी कहते हैं। सहरी के बाद रोजेदार को दिनभर न कुछ खाना है और ना ही कुछ पीना है। यहां तक कि थूक भी नहीं निगलना है। वे कहते हैं कि अभी तो ठीक है, लेकिन यही रोजा मई या जून पड़ता है तो यह किसी चुनौती से कम नहीं होता। सोएब के अनुसार शाम के वक्त नमाज पढ़ी जाती है और सूरज ढलने के बाद इफ्तार किया जाता है। यह अकेले या सामूहिक रूप से भी होता है। ध्यान रहे सहरी और इफ्तार का समय रोज बदलता रहता है।
जकात निकालने की भी है परंपरा
हाफीज मोहम्मद असलम कहते हैं कि रमजान में दान भी किया जाता है। इसमें जकाती निकाली जाती है, जिसे जरूरतमंद को दान किया जाता है। रोजा हमें बुराइयों से दूर रहने और गुनाहों को तौबा करने का मौका भी देता है। हम अपने किए गुनाहों के लिए अल्लहा से माफी मांगते हैं।
इनको है रोजा में छूट
हाफीज मोहम्मद असलम कहते हैं कि इस्लाम में रोजा रखना सभी के लिए जरूरी है। लेकिन इसमें कुछ हालातों में रोजा से छूट भी दी गई है। बच्चा, बीमार, बुजुर्ग और गर्भवती महिलाओं के लिए रोजा से छूट दी गई है। वह इसके लिए जकात निकाल कर उससे जरूरतमंद की मदद कर सकते हैं।